ऑस्ट्रेलिया की "नूनो फेल्टिंग तकनीक" को मिलाकर कश्मीरी नमदा बनाने वाले पहले भारतीय कारीगर फ़ारूक़ अहमद
नमदा और शॉल पर महीन और बारीक काम करने वाला शख्स जिस तरह से अपने हाथों के जादू से अलग अलग रंग डिजाइन के खुबसुरत पेपर माशी, नमदा,साजी,पश्मीना शॉल पर कारीगरी कर रहा है। वो इस शख्स का हूनर है। इनका नाम फ़ारूक़ अहमद है जो हेन्डीक्राफ्ट उद्योग से कई सालों से जुड़े हुए है। ये पूरी तरह से हेन्डमेड व्यवसाय से जुड़े हुये है और अपनी जीवीका के लिए भी वो इस काम पर ही निर्भर है। लगातार बढ़ते मशीनों का प्रचलन ने हेन्डीक्राफ्ट कारीगरों के व्यवसाथ पर बहुत गहरा असर डाल रहा था । मशीने कारीगरों से ज्यादा जल्दी काम करती हैं ।
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श्रीनगर : कश्मीर का हैन्डीक्राफ्ट पुरी दुनिया मशहुर है। जब भी टूरिस्ट यहां आते है तो वो यहां के हेन्डमेड आइटमस को देख अपने आप को रोक नहीं पाते है। मशीनों के बढ़ते इस्तेमाल ने हेन्डमेड कारीगरों के व्यवसाय को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। ऐसे में श्रीनगर के फ़ारूक़ अहमद नाम के कारीगर ने मॉडर्न टेकनीक से अपनी कारीगरी को जोड़कर एक अलग मिशाल पेश की है। पढिए हमारी इस खास रिपोर्ट में ।
नमदा और शॉल पर महीन और बारीक काम करने वाला शख्स जिस तरह से अपने हाथों के जादू से अलग अलग रंग डिजाइन के खुबसुरत पेपर माशी, नमदा,साजी,पश्मीना शॉल पर कारीगरी कर रहा है। वो इस शख्स का हूनर है। इनका नाम फ़ारूक़ अहमद है जो हेन्डीक्राफ्ट उद्योग से कई सालों से जुड़े हुए है। ये पूरी तरह से हेन्डमेड व्यवसाय से जुड़े हुये है और अपनी जीवीका के लिए भी वो इस काम पर ही निर्भर है। लगातार बढ़ते मशीनों का प्रचलन ने हेन्डीक्राफ्ट कारीगरों के व्यवसाथ पर बहुत गहरा असर डाल रहा था । मशीने कारीगरों से ज्यादा जल्दी काम करती हैं, इसलिए जहां एक पश्मीना शॉल को हाथों से बनाने पर 3-4 महीने का वक्त लग जात है । उसके उलट मशीन एक दिन में 50-60 पश्मीना शॉल बना देती है। मशीनों से बनी चीजें बाजार में हेन्डमेड बतलाकर सस्ते दामों पर बेच दी जाती है।
ये सबसे बड़ा कारण है कि हेन्डमेड कारीगरों को अपनी मेहनत का सही दाम नहीं मिलता है और उनके परिवार को दो जून की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। इस समस्या का सामना करते हुये फ़ारूक़ अहमद ने अपनी कारीगरी को मॉडर्न टेकनिक से जोड़कर अपने काम में नई जान फूंक दी है। उन्होंने ऑस्ट्रेलिया स्थित "नूनो फेल्टिंग टेकनीक" को कश्मीर के पारंपरिक हेन्डीक्राफ्ट के साथ जोड़कर एक नये तरीके की कारीगरी तैयार की है जो दुनिया में बेजोड़ है । फ़ारूक़ अहमद बताते है कि वो नमदा पर काम करते थे और हेन्डीक्राफ्ट विभाग ने यू टयूब पर उनकी इस कारीगरी को देखा और वहां से उन्हें एक अलग पहचान मिली। वो जो काम कर रहे थे उसे बेहतर करने के लिए उन्हें उत्तराखण्ड भेजा गया जहां उन्होंने नमदा बनाने की मॉडर्न टेकनॉलिजी सीखी ।
कश्मीर के सदियों पुराने हेन्डीक्राफ्ट में पेपर माशी,शॉल बुनाई, कालीन बुनाई, हथकरघा,खटबंद,लकड़ी की नक्काशी, नमदा साज़ी और गाबा साज़ी शामिल है। उतराखण्ड में ट्रेनिंग के दौरान फारूख बताते है कि वहां पर उन्हें विभाग ने सिल्क का काम भी सीखने के लिए प्रेरित किया जिसे सीखने में उन्हें करीब साल भर का वक्त लगा। उनका कहना है कि जैसे उन्होंने नैनो फेल्टिंग टैकनिक सीखी है ठीक उसी तरह से कश्मीर के युवा कारीगरों को इसे समझने और सीखने के लिए आगे आना चाहिए ताकि इस तरह से ये हुनर एक कारीगर से दूसरे कारीगर तक पहुंचे और कारीगर जो दो जून की रोटी के लिए दूसरे कामों को करने के लिए मजबूर है वो अपना पारंपरिक काम कर सके ।
मशीनों के आने से हेन्डीक्राफ्ट उद्योग से जुड़े कारीगर प्रभावित हुये है। इनके पुर्नउत्थान के लिए सरकार को आगे आना चाहिए ताकि कश्मीर का हेन्डीक्राफ्ट दुनिया में अपनी सही पहचान बना सके।
फ़ारूक़ अहमद बताते है कि उन्हें इस हुनर को सीखने में कम से कम दो साल का समय लगा और इस दौरान वे दिन-रात अथक प्रयासों के बाद इन नए उत्पादों को बनाने में सफल रहे. उन्होंने कहा कि इस नई तकनीक को सीखने में दिल्ली के एक डिजाइनर ने उनकी मदद की। "उसने मेरी बहुत मदद की, जब उसने मुझे यह तकनीक बताई, तो मुझे नहीं लगा कि मैं इसे सीख पाऊंगा, लेकिन अल्हम्दुलिल्लाह, बहुत मेहनत के बाद, मैं इसमें सफल हुआ।"
ये याद रखना चाहिए कि फ़ारूक़ अहमद का परिवार दशकों से कपड़ा उद्योग से जुड़ा हुआ है और उन्हें कश्मीर में कपड़ा उद्योग की आखिरी उम्मीद कहा जाता है। उन्हें राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर कई सम्मान भी मिल चुके हैं। उनके प्रयासों के कारण अब कश्मीर की ट्रेडिशनल कला में कई नए डिजाइन और तकनीकों को शामिल किया जा रहा है। उनका कहना है कि वे इन प्रोडक्ट से कश्मीर के ट्रेडिशनल हेन्डीक्राफ्ट को नया जीवन देकर इस लुप्त होती कला के गौरव को बहाल करने की कोशिश कर रहे हैं।