कश्मीर की तारीख़ सदियों पुराना है। कलाकारी और शिल्पकारी में यहां के कारीगरों का हुनर पूरी दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाये हुये है। तांबे के बर्तनों का इस्तेमाल कब कश्मीर की रवायत में शामिल हुआ और कैसे यहां के कारीगरों ने तांबे पर काम करना सीखा जानिए हमारी इस खास रिपोर्ट में।
कश्मीर में ख़ास तौर पर तांबे से बने बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। तांबे को मेडिसिनल धातु माना जाता है। तांबा अग्नि तत्व से भरपूर होता है। तांबे पर की जाने वाली कारीगरी सदियों से कश्मीर की रवायत में अपनी जड़े जमाए हुए है। कश्मीर में तांबे का इतिहास सात सौ साल पहले का है। तांबे पर की जाने वाली कारीगरी की शुरूआत ईरान और इराक के कारिगरो ने की थी । कश्मीर में फारस से आये एक इस्लामी विद्धान मीर सैय्यद अली हमदानी ने सबसे पहले कश्मीर में तांबे के बर्तनों का प्रचलन चलाया और वो जो कारीगर अपने साथ लेकर आये उन्होंने ही कश्मीर के कारीगरों को तांबे पर कारीगरी करना सिखाया। मुग़लिया सल्तनत के दौरान कश्मीर में तांबे का इस्तेमाल कर कारीगरों से बंदूक की बैरल और तलवार की म्यान बनवाई जाती थी। मुग़लिया सल्तनत के इख़्तेताम के बाद वही कारीगर फिर से एक बार बर्तन बनाने लगे।
श्रीनगर के कारीगर तारिक़ अहमद बताते है कि ये काम उनका पुशतैनी काम है.. उन्होंने अपने वालिद और दादा को भी तांबे पर काम करते देखा है और वहीं से उन्होंने भी इस कारीगरी को सिखा है । सख़्त और शदीद मेहनत और बारीकी से तांबे पर बड़ी काम किया जाता है। एक कारीगर अपनी सारी तवज्जौ इसकी कारीगरी की जानिब मरकूज़ कर एक बर्तन बनाता है तब जाकर बर्तन तैयार होता है। लेकिन अब इस कला पर मशीनों की नजर लग चुकी है, हाथ से बने बर्तनों में वक़्त लगता है और मशीनों से जल्दी बर्तन तैयार कर लिये जाते है और उन्हें बाजार में झुठ बोलकर ताजिर बेच देते है कि ये हेन्डमेड बर्तन है। कस्टमर को लगता है उसने हेन्डमेड बर्तन लिया है लेकिन उसके साथ धोखा कर उसे मशीन से बना हुआ वर्तन बेच दिया जाता है।
तांबे से बने बर्तनों का इस्तेमाल घरों में तो किया ही जाता है साथ ही बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल कश्मीर की शादियों में देखने को मिलता है। श्रीनगर के डाउनटाउन बाज़ार में तांबे के समोवर ,कप, गिलास,तश्तर.,तरामी, जग,,कटोरे.,ट्रे और डेक आसानी से मिल जाते है। तांबे का समोवर रूस की चाय केतली की तरह होता है। केहवा और नून चाय के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है..कश्मीर में ये मानना है कि तांबे के बर्तन सोज़ से बुरी नजर और आत्माएं परेशान नहीं करती है। तश-त-नारिस और ट्रामिस शादी की दावत के लिए ख़ास है इनके बिना कोई भी कश्मीरी शादी पूरी नहीं होती है।
तश-त-नारिस पानी परोसने और रखने वाले बर्तनों का एक जोड़ा है जिसे शादी के बैंक्वेट हॉल के चारों ओर घुमाया जाता है ताकि मेहमान खाने से पहले और बाद में अपने हाथ धो सकें। दूसरी जानिब, ट्रामी एक बड़ा गोल खाने वाला पकवान है जिसे चार लोग एक दावत के दौरान बैठकर खा सकते हैं। खाना शुरू करने से पहले ट्रामी पर जो पकवान रखा जाता है, उसे सरपोश के नाम से जाना जाता है। शादी के बैंक्वेट टेंट या हॉल में सभी मेहमान एक ही वक़्त कश्मीर शादी की दावत में खाते हैं। जो कश्मीर की एक रवायत है, एक दूसरे कारीगर का कहना है कि कश्मीरी शादियों में अब लोग बुफ़े सिस्टम पर ज़ोर दे रहे है। जिसके सबब तांबे के बर्तनों का इस्तेमाल कहीं गुम सा होता जा रहा है।
हेन्डमेड बर्तन बनाने वाले कारीगरों की तादाद 28 हज़ार है। तांबे से जुड़े कारीगरों के मफ़ाद की हिफ़ाज़त करने के लिए 2006 में एक क़ानून बना । जिसके तहत मशीन से बनने वाले तांबे के बर्तनों पर रोक लगाने का काम उस वक़्त सरकार ने किया और इसे नाफ़िज़ करने के लिए वक़तन फ़वक़तन छापे मारकर माल भी जब्त किया । लेकिन फिर भी चोरी छिपे मशीनों से बने तांबे के बर्तन बाजार में आसानी से मिलते है जिसके सबब हेन्डमेड बर्तनों को कोई नहीं लेता। यही वजह है कि इस कारोबार से जुड़े कारीगर आज दो जून की रोटी के लिए सरकार की जानिब पुर उम्मीद नजरों से देख रहे है।