Jammu and Kashmir : क्या पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) अपने सियासी पतन की राह पर चल रही है? सियासत में चूंकी कुछ भी नामुकिन नहीं होता... इसलिए पार्टी के ख़ात्मे की बात तो नहीं की जा सकती है. लेकिन हालिया असेंबली चुनाव के नतीजे बताते हैं कि पीडीपी को इस वक्त सख्त हालात का सामना करना पड़ रहा है...
अब से तकरीबन, एक दशक पहले जो पार्टी जम्मू कश्मीर की सबसे बड़ी पार्टी थी और घाटी में सरकार चला चुकी है, आज असेंबली में उसके सिर्फ 3 मेम्बर हैं... लोकसभा चुनाव में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुला.
पूर्व मुख्यमंत्री (Ex CM) मरहूम मुफ्ती मोहम्मद ने कांग्रेस से अलग रास्ता अपनाकर 1999 में पीडीपी की बुनियाद डाली थी. और सिर्फ तीन साल के अंदर पार्टी इस पोज़ीशन में आ गई कि 2002 में कांग्रेस की मदद से वह सत्ता में आ गई...
वहीं, साल 2004 में लोकसभा में भी पार्टी की नुमाइंदगी होने लगी. 2014 में पीडीपी ने लोकसभा की तीन सीटों पर कब्ज़ा किया और 2016 में पार्टी दोबारा हुकूमत में आई. इस अंतराल को PDP पार्टी का सुनहरा दौर कहा जा सकता है.
हालांकि, मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन और महबूबा मुफ्ती के पार्टी की कमान संभालने के बाद से पार्टी के ग्राफ में गिरावट दर्ज की जाने लगी... पार्टी की कमान पर सवाल उठाते हुए कई सीनियर लीडरान ने अपनी अलग सियासी राह चुन ली...
इसके अलावा, बीजेपी के साथ सरकार बनाने को लेकर आज भी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) चीफ कश्मीर की स्थानीय पार्टियों के निशाने पर हैं. ख़ानदानी सियासत और मुतनाज़ा बयानात को लेकर वो बीजेपी के भी निशाने पर रहती आईं हैं.
ऐसे में, पार्टी के सामने इस वक्त अपना सियासी वजूद बचाने का मसला है. जमीनी सतह पर पार्टी को मजबूत करना दूसरा बड़ा चैलेंज है. क्या महबूबा मुफ्ती और पीडीपी इन चैलेंज का सामना करने के लिए तैयार हैं ?...
अपोजीशन का स्पेस भरने की कोशिश से तो जाहिर होता है कि महबूबा मुफ्ती अभी शिकस्त मानने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस और स्थानीय पार्टियों की बढ़ती लोकप्रियता पीडीपी के लिए खतरे की घंटी है.
इससे इतर, कश्मीर की सियासत में बनवास से वापसी की मिसालें पहले से ही मौजूद हैं. सवाल यह है कि इसका अरसा कितना लंबा होगा यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा...