जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. यह पहली बार होगा, जब इस चुनाव पर अलगाववादी लॉबी का साया नहीं होगा. वे दिन गए, जब हुर्रियत के नेतृत्व वाले अलगाववादी बहिष्कार का आह्वान करते थे और लोग बाहर निकलने से हिचकते थे. पंचायत चुनाव और जिला विकास परिषद के चुनावों ने भारत विरोधी लॉबी को मायूस होना पड़ा था, क्योंकि मतदाता बड़ी संख्या में अपने घर से निकले थे.
अलगाववादी तत्वों के खिलाफ सरकार की लगातार कार्रवाई से उन्हें बड़ा झटका लगा है. उनके शीर्ष नेता, जैसे यासीन मलिक और शब्बीर शाह जेल में हैं. सैयद अली शाह गिलानी, जो घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित अलगाववादी आंदोलन के संरक्षक थे, अकेले मर गए और उनकी अंतिम यात्रा पर भी उनके लिए शोक की कोई घाटी नहीं थी. विभिन्न सरकारी बलों द्वारा निरंतर कार्रवाई के माध्यम से अधिकांश अलगाववादी नेताओं और उनके हमदर्दो का पदार्फाश किया गया है.
यह अच्छी तरह से स्थापित हो गया है कि इनमें से अधिकांश नेता जिहाद या अलगाववादी आंदोलन के नाम पर एकत्र किए गए धन के माध्यम से धन अर्जित कर रहे थे. वे लोगों, विशेषकर युवाओं को बंदूकें और पत्थर उठाने के लिए मजबूर कर रहे थे, यहां तक कि उनके अपने बच्चे भी विदेश में पढ़ रहे थे और काम कर रहे थे. इन नेताओं के बारे में अच्छी तरह से खुलासे सार्वजनिक डोमेन में सामने आए, तब से लोग विश्वासघात महसूस कर रहे हैं.
अनुच्छेद 370 और 35ए के हतने के बाद और लद्दाख को मुक्त करने के बाद राज्य की स्थिति को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने के बाद असली परीक्षा अब कश्मीर में राजनीतिक और चुनावी प्रक्रियाओं को बहाल करने में है. पिछले तीन वर्षो में विशेष संवैधानिक स्थिति के निरसन के बाद जम्मू और कश्मीर में जबरदस्त बदलाव देखा गया है. सभी प्रकार के व्यवसाय फल-फूल रहे हैं, पर्यटन अपने चरम पर है, अमरनाथ यात्रा सफल रही और हर घर तिरंगा अभियान ने काम किया.
जब ऐतिहासिक लाल चौक पर तिरंगा फहराया गया, तो संदेश ज़ोरदार और स्पष्ट था. अलगाववादियों की ज़मीन खिसक गई है और चुनावी प्रक्रिया में विश्वास बढ़ रहा है. अलगाववादियों का बहिष्कार का आह्वान या आतंकवादी समूहों का ख़तरा अब लोगों को मतदान करने से नहीं रोकता है, जैसा कि पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य में हुए पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान देखा गया था. मतदाताओं ने उन क्षेत्रों में भी मतदान केंद्रों के लिए लाइन लगाई, जो कभी उग्रवाद से प्रभावित थे. 2014 के विधानसभा चुनावों में जम्मू-कश्मीर में लगभग 66 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, जिसमें आतंकी खतरों और अलगाववादी बहिष्कार के आह्वान को नजरअंदाज किया गया.
सरकार घाटी में अलगाववादी और आतंकी समर्थन तंत्र पर लगातार नकेल कसती रही है. अलगाववादी बड़े पैमाने पर धमकियों और धार्मिक भावनाओं को भड़काने के माध्यम से काम कर रहे हैं. इन अलगाववादी नेताओं में से कुछ को जेल में बंद करने से आम जनता को उस दुष्टता से मुक्त कर दिया है जो उन्होंने पाकिस्तान के समर्थन से पैदा की थी.