Kashmir’s Traditional Fire Pot: जम्मू-कश्मीर 12 महीनों ही ज़बरदस्त ठंड से जकड़ा रहता है. शीतलहर में हवा के झोंके और बरसती बर्फ यहां के लोगों के हाथ पैर सुन्न कर देती है. ऐसे में सर्दी से बचने के लिए लोग मुख्तलिफ़ तरीक़े आज़माते रहते हैं. लेकिन तमाम तरह के उपकरणों के बावजूद आज भी कश्मीर की पारंपरिक 'कांगडी' ही अपनी गर्माहट से कई लोगों को कड़ाके की ठंड से राहत दे रही है. दुनिया में तरह-तरह के रूम हिटर और कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण होने के बावजूद कश्मीर में कांगड़ी का इस्तेमाल कम नहीं हुआ है. कश्मीर में कांगड़ी आज भी अपनी पहचान क़ायम किए हुए है. बिजली की कटौती के चलते कांगड़ी का वजूद मिटा नहीं है. कश्मीरी अब इसे मोबाइल हीटर भी कहने लगे हैं. घाटी के हर घर की ज़रूरत है कांगड़ी.
आपको बता दें कि कांगड़ी को बनाना कोई आसान काम नहीं है. इसे बड़े ही सब्र के साथ बनाया जाता है. सबसे पहले कांगड़ी में लगे एक मिट्टी के कटोरे को कुम्हार तैयार करता है फिर कटोरे के चारों और कश्मीर में ही पाई जाने वाली विकर की लकड़ी से बुनाई की जाती है. बांस से मिलती जुलती ये बुनाई इस तरह से की जाती है कि बीच में रखा मिट्टी का कटोरा हिलता डुलता नहीं है. कड़ी मशक्कतों से बनाई गई कांगड़ी को कारीगर अपने हिसाब से सजाते हैं. इसकी सजावट ही 'कांगड़ी' की कीमत तय करती है. इसकी क़ीमत 200 से लेकर 2000 तक की हो सकती है. बाहर से घूमने आए लोग इसकी खूबसूरती को देख खुद को रोक नहीं पाते और सिर्फ सजावट के तौर पर भी इसे खरीद लेते है.
बांडीपुरी कांगड़ी और चिरार कांगड़ी को काफी फेमस माना जाता है. कश्मीरी हस्तशिल्प कला का नायाब नमूना कांगड़ी को ही माना जाता है. इतना ही नहीं माहोल के लिहाज़ से भी कांगड़ी बेहद ही अच्छी मानी जाती है.
कांगड़ी को बनाना अगर एक कला है तो कांगड़ी को इस्तेमाल में लाना भी एक कला ही है. दरअसल कांगड़ी को सेंकना कोई आसान काम नहीं है. कांगड़ी के बीच में रखे मिट्टी के कटोरे में सबसे पहले चूल्हे की राख डाली जाती है. इस राख के ऊपर चिनार के सूखे पत्तों की एक परत बिछाई जाती है. फिर इन पत्तों पर 2-3 धधकते कोयले डाल दिए जाते हैं. ‘कांगड़ी’ लंबे वक़्त तक गर्म रखने लिए धधकते कोयलों के ऊपर चूल्हे की गर्म राख की एक परत और बिखेर दी जाती है. चिनार के सूखे पत्ते अंदर ही अंदर सुलगते रहते हैं.
आमतौर पर रूम हिटर वगैरह को कमरे में रख कर चलाया जाता है जिससे कमरा गर्म रहे लेकिन ये कांगड़ी कमरे में नहीं बल्कि इंसान के साथ ही चलती है. कश्मीर में मौसम ठंडा ही रहता है. इसी मौसम में लोगों को कई तरह के काम के लिए घरों से बाहर जाना होता है इसीलिए कांगड़ी को कश्मीरी फेरन (कश्मीर में पहने जाने वाला कोट) में रखकर कही भी चल पड़ते हैं. साथ ही रात में बड़े आराम से बिस्तर में भी कांगड़ी को लेकर सो जाते हैं.